कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
एक दिन गाँव में गया के यात्री आकर ठहरे। सुजान ही के द्वार पर उनका भोजन बना। सुजान के मन में भी गया करने की बहुत दिनों से इच्छा थी। यह अच्छा अवसर देखकर वह भी चलने के लिए तैयार हो गया। उसकी स्त्री बुलाकी ने कहा- अभी रहने दो, अगले साल चलेंगे।
सुजान ने गम्भीर भाव से कहा- अगले साल क्या होगा, कौन जानता है? धर्म के काम में मीन-मेख निकालना अच्छा नहीं। जिंदगानी का क्या भरोसा?
बुलाकी- हाथ खाली हो जाएगा।
सुजान- भगवान की इच्छा होगी, तो फिर रुपये हो जाएँगे, उनके यहाँ किस बात की कमी है।
बुलाकी इसका क्या जवाब देती? सत्कार्य में बाधा डालकर अपनी मुक्ति क्यों बिगाड़ती! प्रातःकाल स्त्री और पुरुष गया करने चले। वहाँ से लौटे, तो यज्ञ और ब्रह्मभोज की ठहरी। सारी बिरादरी निमंत्रित हुई, ग्यारह गाँवों में सुपारी बँटी। इस धूम-धाम से कार्य हुआ कि चारों ओर वाह-वाह मच गई। सब यही कहते कि भगवान धन दे, तो दिल भी ऐसा ही दे। घमंड तो छू नहीं गया। अपने हाथ से पत्तल उठाता फिरता था, कुल का नाम जगा दिया। बेटा हो तो ऐसा। बाप मरा तो घर में भूनी भाँग नहीं थी। अब लक्ष्मी घुटने तोड़कर आ बैठी है!
एक द्वेषी ने कहा- कहीं गड़ा हुआ धन पा गया है।
इस पर चारों ओर से उस पर बौछारें पड़ने लगीं- हाँ तुम्हारे बाप-दादा जो खजाना छोड़ गए थे, वही हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धर्म की कमाई है। तुम भी छाती फड़ाकर काम करते हो; क्यों ऐसी ऊख नहीं लगती, क्यों ऐसी फसल नहीं होती? भगवान आदमी का दिल देखते हैं, जो खर्च करना जानता है, उसी को देते हैं।
सुजान महतो सुजान भगत हो गए। भगतों के आचार-विचार कुछ और भी होते हैं। यह बिना स्नान किए कुछ नहीं खाता। गंगाजी अगर घर से दूर हों और रोज स्नान करके दोपहर तक घर न लौट सकता हो, तो पर्वों के दिन तो उसे अवश्य ही नहाना चाहिए। भजन-भाव उसके घर अवश्य होना चाहिए। पूजा-अर्चा उसके लिए अनिवार्य है। खान-पान में भी उसे बहुत विचार रखना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि झूठ का त्याग करना पड़ता है। भगत झूठ नहीं बोल सकता। साधारण मनुष्य को अगर झूठ का दंड एक मिले तो भगत को एक लाख से कम नहीं मिल सकता।
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